अध्याय १४

 

निष्क्रिय और सक्रिय ब्रह्म

 

अपनी सच्ची सत्ता और विश्व-सत्ता का पूर्ण साक्षात्कार प्राप्त करने में मनोमय मानव को जो कठिनाई अनुभव होती है उसका सामना वह अपने आत्म-विकास की दो विभिन्न दिशाओं में से किसी एक का अनुसरण करके कर सकता है । वह अपनी सत्ता के एक स्तर से दूसरे स्तर की ओर अपने-आपको विकसित कर सकता है और क्रमश: प्रत्येक स्तर पर जगत् के साथ तथा सच्चिदानन्द के साथ अपने एकत्व का आस्वादन कर सकता है । सच्चिदानन्द उसे उस स्तर के पुरुष और प्रकृति अर्थात् चिन्मय आत्मा और प्रकृति-स्वरूप आत्मा के रूप में अनुभूत होते हैं । जैसे-जैसे वह आरोहण करता है वैसे-वैसे वह सत्ता के निम्नतर स्तरों की क्रिया को भी अपने अन्दर समाविष्ट किये चलता है । अर्थात् वह आत्म-विस्तार और रूपान्तर की एक प्रकार की समावेशकारी प्रक्रिया के द्वारा भौतिक मनुष्य का दिव्य या आध्यात्मिक मनुष्य में विकास साधित कर सकता है । ऐसा प्रतीत होता है कि प्राचीनतम ऋषियों की साधन-पद्धति यही थीं जिसकी कुछ झांकी हमें ऋग्वेद में तथा कुछ एक उपनिषदों में मिलती है । इसके विपरीत वह सीधे मानसिक सत्ता के उच्चतम स्तर पर शुद्ध स्वयं-भू सत्ता के साक्षात्कार को अपना लक्ष्य बना सकता है और उस सुरक्षित आधार पर स्थित होकर, अपने मन की परिस्थिति में, उस प्रणाली को आध्यात्मिक रूप में अनुभव कर सकता है जिसके द्वारा स्वयंभू भगवान् सब भूतों का रूप धारण करते हैं; पर ऐसा अनुभव प्राप्त करते हुए वह विभक्त अहंमयी चेतना में अवतरित नहीं होता जो कि अज्ञान में होनेवाले क्रम-विकास की परिस्थिति है । इस प्रकार अध्यात्मभावित मनोमय मानव के रूप में स्वयंभू विराट् सत्ता में सच्चिदानन्द के साथ एक होकर वह फिर इसके परे शुद्ध आध्यात्मिक सत्ता के अतिमानसिक सत्ता की ओर आरोहण कर सकता है । अब हम इस पिछली विधि के क्रमों को ज्ञानमार्ग के साधक के लिये निर्धारित करने का यत्न करेंगें ।

 

    जब साधक अहंभाव, मन, प्राण और शरीर के साथ अपनी आत्मा के अनेकविध तादात्म्यों से पीछे हटने की साधना का अनुष्ठान कर चुकता है तो वह ज्ञान के द्वारा उस शुद्ध, निश्चल, आत्म-सचेतन, समरूप आत्मा का साक्षात्कार प्राप्त कर लेता है जो एक, अविभक्त, शान्तिमय एवं निष्किय है तथा जगत् के कार्य-व्यापार से चलायमान नहीं होता । इस आत्मा का जगत् के साथ केवल इतना ही सम्बन्ध प्रतीत होता है कि यह इसका एक निष्काम साक्षी है जो इसके किसी भी व्यापार में तनिक भी लिप्त नहीं होता, उससे प्रभावित या स्पृष्ट तक नहीं होता ।

 

    १ विशेष रूप से, तैत्तिरीय उपनिषद् में ।

४०६


यदि चेतना की इस अवस्था को और आगे बढ़ाया जाय तो साधक को एक ऐसे आत्मा का ज्ञान प्राप्त होता है जो जगत्-सत्ता से और भी अधिक दूर है; इस जगत् में जो कुछ भी है वह एक अर्थ में उस आत्मा में विद्यमान है और फिर भी उसकी चेतना के बाहर स्थित है, उसकी सत्ता में अस्तित्व नहीं रखता, एक प्रकार के अवास्तविक मन में ही अस्तित्व रखता है, --अतएव एक स्वप्न है, भ्रम है । इस दूरस्थ एवं परात्पर वास्तविक सत्ता को वह अपनी सत्ता के विशुद्ध आत्मा के रूप में अनुभव कर सकता है; अथवा आत्मा का एवं उसकी अपनी सत्ता का विचार तक इस परात्पर में सर्वथा विलीन हो जा सकता है; परिणामत: मन को यह केवल ऐसा अज्ञेय 'तत्' ही लगता है जो मानसिक चेतना के लिये अग्राह्य होता है और जिसका जगत्-सत्ता के साथ किसी प्रकार का वास्तविक सम्बन्ध या व्यवहार सम्भव नहीं हों सकता । मनोमय पुरुष इसे नास्ति, असत् या शून्य के रूप में भी अनुभव कर सकता है, पर ऐसे शून्य के रूप में जो, जगत् में जो कुछ भी है उस सबसे शून्य है, एक ऐसे असत् के रूप में जिसमें जगत् की सभी वस्तुओं का अभाव है और फिर भी जो एकमात्र सद्वस्तु है । इस परात्पर सत्ता पर अपनी सत्ता को एकाग्र करके इसकी ओर और आगे बढ़ने का अर्थ है मानसिक सत्ता तथा जगत्-सत्ता का पूर्ण विलय करके अपने-आपको अज्ञेय में निमज्जित कर देना ।

 

    परन्तु सर्वांगीण ज्ञानयोग इसके स्थान पर यह मांग करता है कि हम दिव्यता प्राप्त करके जगत् को फिर से अपना लें और इसके लिये पहला पग यह है कि हम सर्व-रूप आत्मा का 'सर्व' के रूप में साक्षात्कार करें, सर्व ब्रह्म । सर्वप्रथम, स्वयंभू आत्मा पर अपने-आपको एकाग्र करके हमें अनुभव करना होगा कि मन और इन्द्रियों के द्वारा गोचर सभी वस्तुएं इस शुद्ध आत्मा में विद्यमान वस्तुओं के आकार हैं, इस आत्मा में जो कि अब हमारी चेतना के निकट हमारा अपना ही स्वरूप है । शुद्ध आत्मा का यह साक्षात्कार मन की सूक्ष्मेन्द्रिय और अनुभवशक्ति के प्रति एक ऐसी अनन्त सद्वस्तु के रूप में परिणत हो जाता हैं जिसमें सभी वस्तुएं केवल नाम-रूपात्मक अस्तित्व रखती हैं, वे ठीक अर्थ में अवास्तविक, भ्रमात्मक या स्वप्नरूप तो नहीं हैं, पर फिर भी चेतना की एक ऐसी कृतिमात्र हैं जो ठोस-पदार्थ-रूप होने की अपेक्षा कहीं अधिक सूक्ष्म अनुभवशक्ति तथा सूक्ष्मेन्द्रियों से ही ग्राह्य है । चेतना की इस भूमिका में यह सब विश्व यदि स्वप्न नहीं तो बहुत कुछ एक ऐसे प्रदर्शन या कठपुतलियों के खेल जैसा दिखायी देता है जो स्थिर, निश्चल, शान्तिमय एवं उदासीन आत्मा में हो रहा है । हमारी अपनी दृश्य सत्ता इस सूक्ष्म कल्पनात्मक क्रिया का एक अंग है, अन्य रूपों के बीच यह भी मन और शरीर से युक्त एक यान्त्रिक रूप है, स्वयं हम सत्ता के अन्य नामों के बीच उसका एक नाम हैं, सर्वतोव्यापी एवं प्रशान्त आत्म-चैतन्य से युक्त इस आत्मा में यन्त्रवत् गतिशील हैं । इस भूमिका में जगत् की सक्रिय चेतना हमारी अनुभूति में उपस्थित नहीं होती,

४०७


क्योंकि विचार हमारे अन्दर शान्त हो चुका है और अतएव हमारी अपनी चेतना पूर्णतया शान्त और निष्क्रिय बन गयी है, --जो भी कार्य हम करते हैं, वह हमें निरा यान्त्रिक प्रतीत होता है । हमारा सक्रिय संकल्प और ज्ञान उसे किसी प्रकार भी सचेतन रूप से आरम्भ नहीं करते । अथवा, यदि विचार की क्रिया उत्पन्न होती भी है तो वह भी अन्य क्रियाओं की तरह, हमारे शरीर की क्रिया की तरह, यान्त्रिक ढंग से ही पैदा होती है, पौधे और धातु में होनेवाली क्रिया की भांति प्रकृति के अदृष्ट करणों के द्वारा चालित होती है, हमारी सत्ता के किसी सक्रिय संकल्प के द्वारा नही । क्योंकि, यह आत्मा निश्चल है और जिस कार्य के लिये यह अनुमति देता है उसे न तो आरम्भ करता है न उसमें भाग ही लेता है । यह आत्मा 'सर्व' है, पर केवल इस अर्थ में कि यह अनन्त एकमेव है जो सब नामों और रूपों के मूल में निर्विकार रूप से विद्यमान है तथा उन्हें अपने अन्दर धारण किये हुए है ।

 

   चेतना की इस भूमिका का मूल मन के एक एकांगी साक्षात्कार में निहित है जिसके द्वारा यह उस शुद्ध स्वयंभू सत्ता को उपलब्ध करता है जिसमें चेतना शान्त और निष्किय रहती है, सत्ता के शुद्ध आत्म-चैतन्य में व्यापक रूप से एकाग्र होती है, न कोई क्रिया करती है और न किसी प्रकार की व्यक्त सत्ता उत्पन्न करती है । उस चेतना का ज्ञान-सम्बन्धी रूप भेद-प्रभेद-रहित तादात्म्य के भान में शान्त हुआ रहता है; उसका शक्ति और संकल्प-सम्बन्धी रूप अविकार्य अक्षर-भाव के बोध में शान्त हो रहता है । फिर भी उसे नामों और रूपों का भान होता है, क्रिया का बोध रहता है; पर यह क्रिया आत्मा से उत्पन्न होती नहीं प्रतीत होती, बल्कि ऐसा लगता है कि यह अपनी ही किसी अन्तर्निहित शक्ति से चल रही है और आत्मा में तो इसका केवल प्रतिबिम्ब पड़ता है । दूसरे शब्दों में, मनोमय सत्ता ने एकपक्षीय एकाग्रता के द्वारा चेतना के सक्रिय रूप को अपने से दूर हटा दिया है, उसके निष्क्रिय रूप की शरण ले ली है और इन दोनों रूपों के बीच एक दीवार खड़ी करके दोनों का सम्बन्ध-विच्छेद कर दिया है; निष्क्रिय और सक्रिय ब्रह्म कै बीच उसने एक खाई खोद डाली है और है इसके किनारों पर एक-दूसरे के आमने-सामने स्थित हैं, दोनों एक-दूसरे के लिये गोचर हैं, पर उनमें किसी प्रकार का भी सम्बन्ध नहीं है, न तो सहानुभूति का लेशमात्र सम्वेदन है और न एकत्व का कोई भान । अतएव निष्क्रिय आत्मा को समस्त चेतन सत्ता अपने स्वरूप में निष्क्रिय प्रतीत होती है, समस्त क्रिया अपने स्वरूप में अचेतन और अपनी गति में जड़ प्रतीत होती है । इस भूमिका का साक्षात्कार प्राचीन सांख्य दर्शन का आधार है । इस दर्शन की शिक्षा यह थी कि पुरुष या चिन्मय आत्मा एक शान्त, निष्क्रिय एवं अक्षर सत्ता है, प्रकृति या प्रकृति-स्वरूप आत्मा जिसमें मन और बुद्धि भी सम्मिलित हैं, सक्रिय, क्षर और जड़ है, पर पुरुष में इस प्रकृति का प्रतिबिंब पड़ता है । जो भी चीज पुरुष के अन्दर प्रतिबिंबित होती है उसके साथ वह अपने-आपको

४०८


तदाकार कर लेता है और उसे अपनी चैतन्य-ज्योति प्रदान कर देता है । जब पुरुष उसके साथ अपने-आपको तदाकार न करने का अभ्यास डाल लेता है तो प्रकृति अपने क्रियावेग को त्यागने लगती है और साम्यावस्था तथा निष्क्रियता की ओर लौट जाती है । इसी भूमिका के वैदान्तिक विचार ने इस दर्शन को जन्म दिया कि निष्क्रिय आत्मा या ब्रह्म ही एकमात्र है और शेष सब चीजें तो केवल नाम और रूप हैं जिन्हें मानसिक भ्रम की एक मिथ्या क्रिया ने ब्रह्म पर आरोपित कर दिया है; इस भ्रम को निर्विकार आत्मा का यथार्थ ज्ञान प्राप्त करके तथा 'अध्यारोप' का निषेध करके दूर करना होगा । वास्तव में सांख्य और वेदान्त के विचार केवल अपनी भाषा और अपने दृष्टिकोण में ही भिन्न हैं; सारतः ये एक ही आध्यात्मिक अनुभव के आधार पर बनाया गया एक ही बौद्धिक सिद्धान्त हैं ।

 

   यदि हम यहीं रुक जायें तो जगत् के प्रति हम केवल दो प्रकार की ही मनोवृत्ति धारण कर सकते हैं । या तो हमें जगत् की लीला के निष्क्रिय साक्षिमात्र रहना होगा या फिर इसमें अपनी चेतन सत्ता का किसी प्रकार सहयोग दिये बिना केवल यांत्रिक ढंग से और ज्ञानेन्द्रियों तथा कर्मेन्द्रियों की क्रिया-प्रवृत्ति के द्वारा ही कार्य करना होगा । इनमें से पहली वृत्ति का चुनाव करने पर हम निष्क्रिय एवं शान्त ब्रह्म की निष्क्रियता को यथा-सम्भव अधिक-से-अधिक पूर्ण रूप में प्राप्त करने का यत्न करते हैं । हम अपने मन को निःस्पन्द करके और विचार की क्रिया तथा हृदय के विक्षोभों को शान्त करके पूर्ण आन्तरिक शान्ति तथा उदासीनता प्राप्त कर चुके हैं । अब हम प्राण और शरीर की यांत्रिक क्रिया को शान्त करने और यथासम्भव अतीव अल्प एवं कम-से-कम कर देने का यत्न करते हैं, ताकि यह अन्त में पूर्ण रूप से तथा सदा के लिये समाप्त हो जाय । यह जीवन का परित्याग करनेवाले संन्यासप्रधान योग का अन्तिम लक्ष्य है, पर स्पष्टतः ही, यह हमारा लक्ष्य नहीं है । इसके विकल्पस्वरूप यदि हम दूसरी वृत्ति का चुनाव करें तो हम पूर्ण आन्तरिक निष्क्रियता, शान्ति, मानसिक नीरवता, उदासीनता, आवेशों का विलोप, संकल्प-शक्ति में वैयक्तिक पसंदगी का अभाव--इन सब गुणों से युक्त रहते हुए एक ऐसा कर्म भी करते रह सकते हैं जो अपने बाह्य रूप में काफी पूर्ण हों ।

 

   साधारण मन को ऐसा कर्म सम्भव नहीं प्रतीत होता । जैसे भाविक दृष्टि से यह किसी ऐसे कर्म की कल्पना नहीं कर सकता जो कामना और आवेशमूलक अभिरुचि से रहित हो, वैसे ही बौद्धिक दृष्टि से यह किसी ऐसे कर्म की कल्पना भी नहीं कर सकता जो विचारात्मक परिकल्पना, सचेतन हेतु तथा संकल्प की प्रेरणा से रहित हो । परन्तु वास्तव में हम देखते हैं कि हमारा अपना अधिकांश कर्म तथा जड़ और निरी सप्राण सत्ता की सम्पूर्ण क्रिया एक यांत्रिक आवेग एवं गति के द्वारा संपन्न होती है जिसमें ये कामना आदि तत्त्व, कम-से-कम प्रकट रूप में, कार्य नहीं

 

   १ केवलैरिन्द्रियै: -गीता ।

४०९


कर रहे होते । यह कहा जा सकता है कि यह बात निरी भौतिक एवं प्राणिक क्रिया के बारे में ही सम्भव है, उन क्रियाओं के बारे में नहीं जो साधारणत: विचारात्मक और संकल्पमय मन के व्यापार पर निर्भर करती है, जैसे बोलना, लिखना तथा मानवजीवन का समस्त बुद्धिप्रधान कार्य । परन्तु यह कथन भी सत्य नहीं है, जब हम अपनी मानसिक प्रकृति की अभ्यासगत एवं सामान्य क्रिया-प्रक्रिया के पीछे जाने में समर्थ हो जाते हैं तो हमें इसकी असत्यता का पता चल जाता है । आधुनिक मनोवैज्ञानिक परीक्षण के द्वारा यह ज्ञात हो गया है कि ये सब क्रियाएं प्रत्यक्ष कर्ता के विचार और संकल्प में किसी प्रकार भी सचेतन रूप से उत्पन्न हुए बिना संपन्न की जा सकती हैं; उसकी ज्ञानेन्द्रियां और कर्मेन्द्रियां, वागिन्द्रिय समेत, उसके अपने विचार और संकल्प से भिन्न किसी अन्य विचार और संकल्प के निष्किय यंत्र बन जाती हैं ।

 

    इसमें सन्देह नहीं कि समस्त बुद्धिप्रधान कार्य के पीछे किसी बुद्धि का संकल्प होना चाहिये, पर वह बुद्धि या संकल्प कर्ता के सचेतन मन का ही हो यह आवश्यक नहीं । जिन मनोवैज्ञानिक परीक्षणों का मैंने उल्लेख किया है उनमेंसे कुछ एक में, स्पष्ट रूप से, अन्य मनुष्यों की संकल्पशक्ति एवं बुद्धि ही कर्ता की इन्द्रियों एवं करणों का प्रयोग करती है, कुछ दूसरे परीक्षणों में यह निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता कि उनमें इन्द्रियों का संचालन अन्य--सत्ताओं के प्रभाव या प्रेरणा द्वारा होता है अथवा वहां अवचेतन या प्रच्छन्न मन उपरितल पर आकर कार्य करता है या फिर ये दोनों साधन मिल-जुलकर कार्य करते हैं । परन्तु उपरिवर्णित यौगिक भूमिका में जिसमें कर्म केवल इन्द्रियों द्वारा ही चलता रहता है, केवलैरिन्द्रियै:, स्वयं प्रकृति की विराट् प्रज्ञा एवं संकल्पशक्ति ही अतिचेतन और अवचेतन केन्द्रों से कार्य करती है जैसे वह वनस्पति-जीवन या निष्प्राण जड़पदार्थ की यांत्रिक पर उद्देश्यपूर्ण शक्तियों में कार्य करती है; अन्तर इतना ही है कि यौगिक भूमिका में वह एक ऐसे सजीव यंत्र के द्वारा कार्य करती है जो कार्य और करण का सचेतन साक्षी होता है । यह एक विलक्षण तथ्य है कि इस प्रकार की भूमिका सें उद्भूत वाणी, लेख तथा बुद्धिप्रधान कार्य एक ऐसे पूर्णतः शक्तिशाली विचार को व्यक्त कर सकते हैं जो ज्योतिर्मय, स्थलनरहित, शृखलाबद्ध एवं अन्तःप्रेरित होता है तथा अपने साधनों को साध्यों के पूर्णत: अनुकूल बना लेता है, इस प्रकार जो चीज व्यक्त होती हैं वह उससे बहुत परे की होती है जिसे मनुष्य अपने मन, संकल्प और सामर्थ्य की पुरानी सामान्य अवस्था में स्वयं व्यक्त कर सकता, तथापि इस भूमिका में जो विचार उसके पास आता है उसे वह स्वयं बराबर देखता रहता है, उसकी कल्पना नहीं करता, जो संकल्प उसके द्वारा कार्य करता है उसके कार्यों का निरीक्षण करता है, पर उसपर अपना अधिकार नहीं जमा लेता, न उसका प्रयोग ही करता है, एक निष्क्रिय यंत्र-जैसे उसके आधार के द्वारा जो शक्तियां जगत् पर

४१०


अपनी क्रिया करती हैं उन्हें साक्षिवत् देखता है, किन्तु उनपर अपना स्वत्व होने का दावा नहीं करता । परतु यह दृग्विषय वस्तुत: कोई असामान्य वस्तु नहीं है, न यह विश्व के सामान्य नियम के विरुद्ध ही है । कारण, क्या हम भौतिक प्रकृति के जड़ दिखायी देनेवाले कार्य में गुप्त विराट् संकल्प-शक्ति और प्रज्ञा की पूर्ण क्रिया नहीं देखते ? ठीक यही विराट् संकल्पशक्ति एवं प्रज्ञा शान्त, उदासीन तथा अन्तर्नीरव योगी के द्वारा, जो इसकी क्रियाओं में सीमित एवं अज्ञ वैयक्तिक संकल्प और बुद्धि की कोई बाधा उपस्थित नहीं करता, उक्त प्रकार से अपना कार्य करती है । वह नीरव आत्मा में निवास करता है; वह सक्रिय ब्रह्म को अपने प्राकृतिक करणों के द्वारा कार्य करने देता है और उसकी विराट् शक्ति औरज्ञान की रूप-रचनाओं को निष्पक्ष भाव से तथा उनमें किसी प्रकार का भाग लिये बिना स्वीकार करता है ।

 

   आन्तरिक निष्कियता और बाह्य कर्म की यह स्थिति, जिसमें दोनों एक-दूसरे से स्वतंत्र होते हैं, पूर्ण आध्यात्मिक स्वातंत्र्य  की अवस्था है । जैसा कि गीता में कहा गया है, योगी कर्म करता हुआ भी कुछ नहीं करता, क्योंकि वह नहीं, बल्कि विराट् प्रकृति ही अपने प्रभु से परिचालित होकर उसके अन्दर कार्य करती है । वह अपने कर्मों से बंधता नहीं, न तो वे अपने पीछे उसके मन में कोई प्रभाव या परिणाम छोड़ जाते हैं और न उसकी आत्मा पर उनका कोई लेप या दाग ही लगता है वे करने के साथ ही विलुप्त एवं विलीन हों जाते हैं और अक्षर सत्ता पर कोई भी प्रभाव छोड़े बिना तथा अन्तरात्मा को विकृत किये बिना चले जाते हैं । अतएव, ऐसा लगता है कि यदि ऊपर उठी हुई आत्मा को इस भूमिका में पहुंचने पर भी जगत् में मानवीय कर्म से किसी प्रकार का सम्बन्ध बनाये रखना हो तो उसे इस स्थिति को अपनाना होगा--अन्तर में तो अटल निश्चल-नीरवता, शान्ति एवं निष्क्रियता और बाहर ऐसी विराट् संकल्पशक्ति एवं प्रज्ञा के द्वारा नियंत्रित कर्म जो, गीता के अनुसार, अपने कर्मों में लिप्त हुए बिना, उनसे बद्ध या उनमें अज्ञानपूर्वक आसक्त हुए बिना कार्य करती है । और निःसंदेह, जैसा कि हम कर्मयोग में देख चुके हैं, पूर्ण आन्तरिक निष्क्रियता पर प्रतिष्ठित पूर्ण कर्म की यह अवस्था ही योगी को प्राप्त करनी होगी । परन्तु यहां, आत्मज्ञान की जिस भूमिका में हम पहुंचे हैं उसमें, स्पष्ट ही समग्रता का अभाव है; निष्क्रिय और सक्रिय ब्रह्म के बीच अभीतक एक खाई है, उनमें एकत्व साधित नहीं दुआ है अथवा उनकी चेतना में हमें भेद दिखायी देता है । नीरव आत्मा की उपलब्धि को खोये बिना सचेतन रूप से सक्रिय ब्रह्म को प्राप्त करना हमारे लिये अभी भी बाकी है । आन्तरिक नीरवता, प्रशान्ति तथा निष्क्रियता को हमें आधार के रूप में सुरक्षित रखना होगा; पर सक्रिय ब्रह्म के कार्यों के प्रति उपेक्षापूर्ण उदासीनता के स्थान पर हमें उनमें सम और

 

    १ न कर्म लिप्यते नरे । -ईशोपनिषद्

    २ प्रविलीयन्ते कमाणि । -गीता

४११


पक्षपातशून्य आनन्द प्राप्त करना होगा; इस भय से कि कहीं हमारी शान्ति और स्वतंत्रता खो न जाय, जगत् के कर्म में भाग लेने से इन्कार करने के स्थान पर हमें उस सक्रिय ब्रह्म को सचेतन रूप से प्राप्त करना होगा जिसका जागतिक सत्ता का आनन्द उसकी शान्ति को भंग नहीं करता, न समस्त जगद्व्यापार का स्वामी होने से अपने कर्मों के बीच में जिसकी शान्त स्वतंत्रता को कोई क्षति ही पहुंचती है ।

 

    किन्तु कठिनाई इसलिये पैदा होती ।है कि मनोमय मानव एकांगी रूप से अपने उस शुद्ध सत्ता के स्तर पर ही एकाग्रता करता है जिसमें चेतना निष्क्रियता में शान्त हुई रहती | है और सत्ता का आनन्द सत्ता की शान्ति में स्थिर हुआ रहता है । उसे अपनी सत्ता के उस चिच्छक्तिमय स्तर का भी आलिंगन करना होगा जिसमें चेतना बल और संकल्प के रूप में क्रियाशील है और आनन्द सत्ता के हर्ष के रूप में क्रियाशील है । यहां कठिनाई यह है कि मन शक्तिमय चेतना को अधिकृत करने के स्थान पर अपने-आपको उसमें अविवेकपूर्वक झोंक सकता है । यह अवस्था जिसमें मन अपने-आपको प्रकृति में झोंक देता है, साधारण मनुष्य में पराकाष्ठा को पहुंच जाती है । वह अपने शरीर तथा प्राण की क्रियाओं को तथा उनपर आश्रित मानसिक क्रियाओं को ही अपनी सम्पूर्ण वास्तविक सत्ता मानता है और आत्मा की समस्त निष्क्रियता को जीवन से विमुक्त होना तथा शून्यता की ओर जाना समझता है । वह सक्रिय ब्रह्म के ऊपरी भाग में निवास करता है और जहां निष्क्रिय आत्मा पर अनन्य भाव से एकाग्र हुए नीरव 'पुरुष' के लिये सभी कर्म नाम और रूपमात्र हैं, वहां उक्त साधारण मनुष्य के लिये वे एकमात्र वास्तविक सत्ता हैं तथा आत्मा ही महज एक नाम हैं । इनमें से एक अवस्था में निष्क्रिय ब्रह्म सक्रिय से अलग-थलग रहता है तथा उसकी चेतना में भाग नहीं लेता; दूसरी में सक्रिय ब्रह्म निष्क्रय से अलग रहता है तथा उसकी चेतना में भाग नहीं लेता और न अपनी चेतना पर ही पूर्ण अधिकार रखता है । इन परस्पर-वर्जक पक्षों में उक्त प्रत्येक अवस्था दूसरी को यदि पूर्णत: मिथ्या न भी प्रतीत हो तो भी वह कम-से-कम स्थिति-रूपी जड़ता या आत्मप्राप्ति की अभावरूपी एक ऐसी जड़ता अवश्य प्रतीत होती है जिसमें सब क्रियाएं यंत्रवत् होती रहती हैं । परन्तु जिस साधक ने वस्तुओं के सारतत्त्व का एक बार दृढ़तापूर्वक साक्षात्कार कर लिया है और नीरव आत्मा की शान्ति का पूर्णतया रसास्वादन कर लिया है वह ऐसी किसी भी अवस्था से सन्तुष्ट नहीं हों सकता जिसमें आत्मज्ञान को गंवाना या आन्तरात्मिक शान्ति का बलिदान करना पड़े । वह मन, प्राण और शरीर की समस्त अज्ञान, आयास और विक्षोभवाली निरी वैयक्तिक क्रिया में अपने-आपको पुनः नहीं झोंकेगा । वह चाहे कोई भी नयी अवस्था क्यों न प्राप्त कर ले उससे उसे सन्तुष्टि तभी होगी यदि वह उस अवस्था पर आधारित हो तथा उसे अपने अन्तर्गत रखती हो जिसे वह पहले

४१२


से ही वास्तविक आत्मज्ञान, आत्मानन्द और आत्मप्रभुत्व के लिये अनिवार्य अनुभव कर चुका है ।

 

    फिर भी, जब वह जगत् के कर्म के साथ अपना सम्बन्ध स्थापित करने के लिये फिर से यत्न करेगा तो वह पुरानी मानसिक क्रिया में आशिक, बाह्य और अस्थायी रूप से पुनः पतित हो सकता है । इस पतन को रोकने के लिये या जब यह हो जाय तो इसका प्रतिकार करने के लिये उसे सच्चिदानन्द के सत्य को दृढ़तापूर्वक पकड़ रखना होगा । और, अनन्त एकमेव के अपने साक्षात्कार को अनन्त बहुत्व की क्रिया के क्षेत्र में विस्तारित करना होगा । उसे सभी वस्तुओं मे विद्यमान एकमेव ब्रह्म पर एकाग्रता करके यह साक्षात्कार करना होगा कि ब्रह्म सत्ता की चेतन शक्ति है तथा चेतन सत्ता का शुद्ध चैतन्य है । सत्ता की सच्ची उपलब्धि की ओर एक कदम और आगे बढ़कर उसे यह साक्षात्कार भी प्राप्त करना होगा कि आत्मा 'सर्व' है जो यहां वस्तुओं के अद्वितीय सारतत्त्व के रूप में ही नहीं, बल्कि उनके अनेकविध आकारों के रूप में भी उपस्थित है, जो सबको अपनी परात्पर चेतना में समाये ही नहीं रहता, बल्कि उपादानभूत चेतना के द्वारा सब वस्तुओं के रूप में प्रकट भी होता है । जैसे-जैसे यह साक्षात्कार पूर्ण होता जायेगा वैसे-वैसे चेतना की अवस्था एवं उसके उपयुक्त मानसिक दृष्टि बदलती चली जायेगी । एक ऐसे अक्षर आत्मा के स्थान पर जो नामों और रूपों को अपने अन्दर समाये हुए है तथा जो प्रकृति के क्षर भावों को अपने अन्दर धारण करता है, पर उनमें भाग नहीं लेता, वह एक ऐसे आत्मा से सचेतन हो जायगा जो अपने सारतत्त्व में अक्षर है तथा अपनी मूल स्थिति में निर्विकार है, पर जो इन सब सत्ताओं को जिन्हें मन नाम और रूप कहकर वर्णित करता है, अपने अनुभव में गठित करता है और स्वयं ही इन सब सत्ताओं के रूप में प्रकट होता है । मन और शरीर के समस्त रूप उसके लिये केवल ऐसे आकार नहीं होंगे जिनका पुरुष में प्रतिबिंब पड़ता है, वरन् ऐसे वास्तविक रूप होंगे जिनका सारतत्त्व और मानों जिनकी रचना का उपादान ब्रह्म ही है, आत्मा एवं चिन्मय पुरुष ही है । रूप के साथ सम्बद्ध नाम मन का एक ऐसा कोरा विचार नहीं होगा जो उस नामवाली किसी भी वास्तविक सत्ता से सम्बन्ध न रखता हो, बल्कि उसके पीछे चेतन सत्ता की एक सच्ची शक्ति होगी, ब्रह्म का एक वास्तविक आत्मानुभव होगा जो किसी ऐसी वस्तु के अनुरूप होगा जिसे वह अपनी नीरवता में सम्भाव्य पर अव्यक्त रूप में धारण किये हुए था । फिर भी अपने सब क्षर भावों में वह एक, मुक्त तथा उनसे ऊपर अनुभूत होगा । यह साक्षात्कार कि एक एकमेवाद्वितीय, वास्तविक सत्ता है जो नामों और रूपों के अध्यारोप के वश सुख-दुःख का अनुभव कर रही है, एक ऐसी सनातन सत्ता के साक्षात्कार को स्थान दे देगा जो अपने-आपको अनन्त भूतभावों के रूप में प्रकट कर रही है । योगी की चेतना के लिये सभी भूत आत्मा के, उसकी अपनी सत्ता के, विचारात्मक रूप ही

४१३


नहीं, बल्कि आत्मिक रूप होंगे, जो उसके साथ एकीभूत तथा उसकी विराट् सत्ता में समाये हुए होंगे । भूतमात्र का समस्त आन्तरात्मिक तथा मानसिक, प्राणिक एवं शारीरिक जीवन उसे नित्य एकरस रहनेवाले 'पुरुष' की एक और अविभाज्य गति एवं क्रिया के रूप में प्रतीत होगा । उसे अक्षर स्थिति और क्षर क्रिया के दोहरे स्वरूप से युक्त विराट् के रूप में आत्मा का साक्षात्कार होगा और यही हमारी सत्ता का व्यापक सत्य प्रतीत होगा ।

४१४